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Niti Aayog: नीति आयोग का खुलासा, मोदीकाल में कहाँ गए करोड़ों गरीब ?

Niti Aayog: दोस्तों यह दावा अपने आप में इतना शानदार है कि हर कोई इस दावे पर चौंक रहा है लेकिन यही हकीकत है। जी हां, नीति आयोग का यह दावा की मोदी सरकार के पिछले 9 साल के कार्यकाल के दौरान करोड़ों लोग गरीबी के दलदल से बाहर निकले हैं. गरीबी दर तेजी घट रही है

नीति आयोग ने वर्ष 2005-06 को आधार बनाते हुए ,,वर्ष 2013-14 से 20222-23 के 9 वर्षों के दौरान 24.82 करोड़ भारतीयों को गरीबी की रेखा से बाहर निकालने का दावा ठोंक दिया और अगले एक घंटे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस खबर को रिट्वीट कर बेहद उत्साहवर्धक बताते हुए देश की अर्थव्यस्था में बेहद सकारात्मक बदलाव के लिए अपनी सरकार को बधाई दे डाली

दोस्तों चलो मन लेते है अगर इतनी बड़ी संख्या में लोगों की आर्थिक हालत में सुधार हुआ है तो फिर हर दूसरा आदमी बेरोजगार क्यों है? सबसे बड़ी बात 80 करोड़ लोगों को हर महीने 5 किलो अनाज पर क्यों टिका कर रखा गया है? अगर गरीब सिर्फ 11.28 फीसदी हैं तो बाकी मुफ्त अनाज पाने वाले करीब 60 फीसदी मध्य वर्ग के हैं या अमीर हैं! हर प्रदेश में क्षेत्रीय पार्टियां ही नहीं कांग्रेस और खुद भाजपा को एक से बढ़कर एक लालीपॉप की घोषणा क्यों करनी पड़ रही है? ऐसा क्यों कहना पड़ रहा है कि यह मोदी की गारंटी है ये आपको मेरा वादा है?

गरीबी से बाहर आए 24.82 करोड़ लोगः नीति आयोग

दोस्तों भारत सरकार ने दावा किया है स्वच्छता अभियान इतना सफल हुआ है कि देश खुले में शौच से मुक्त हो गया है। यह आधिकारिक घोषणा है कि भारत खुले में शौच से मुक्त देश है यानी कोई खुले में शौच के लिए नहीं जाता है। लेकिन नीति आयोग ने कहा है कि 31 फीसदी यानी करीब 43 करोड़ लोगों के पास घरों में शौचालय नहीं है। इसी तरह नीति आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 44 फीसदी लोगों के पास रसोई गैस का कनेक्शन नहीं है।

अब आप खुद ही सोचिए , उज्ज्वला योजना की 10 करोड़वीं लाभार्थी के घर तो पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही चाय पीने गए थे। यानी 50 करोड़ लोगों तक तो मोदी सरकार ने रसोई गैस का कनेक्शन पहुंचाया है। उसके बाद भी 44 फीसदी यानी 60 करोड़ लोगों के पास अब भी रसोई गैस का कनेक्शन नहीं है। तो फिर बचे ही कितने लोग जिनके पास 2014 से पहले एलपीजी का कनेक्शन था?

नीति आयोग की मानें तो भारत यूएनडीपी द्वारा वर्ष 2030 तक निर्धारित सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के मल्टी डायमेंशनल पावर्टी को आधा करने के लक्ष्य को काफी पहले ही हासिल करने जा रहा है। हालांकि कई अर्थशास्त्री इस्तेमाल की गई पद्धति से संतुष्ट नहीं हैं। नीति आयोग के अनुसार 2013-14 में भारत में बहुआयामी गरीबी 29.17% थी जो 2022-23 में घटकर 11.28% रह गई है, जिसके चलते 24.82 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकल चुके हैं।

उत्तर प्रदेश में पिछले नौ वर्षों के दौरान बहुआयामी गरीबी से 5.94 करोड़ लोग बाहर निकले। इसके बाद बिहार में 3.77 करोड़, मध्य प्रदेश में 2.30 करोड़ और राजस्थान में 1.87 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी के दायरे से बाहर निकले। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2005-06 से 2015-16 की अवधि (7.69 प्रतिशत वार्षिक गिरावट की दर) की तुलना में 2015-16 से 2019-21 के बीच गरीबी अनुपात में गिरावट की गति बहुत तेज (गिरावट की वार्षिक दर 10.66 प्रतिशत) रही।

दोस्तों नीति आयोग को मोदी सरकार ने 2014 में सरकार में आने के बाद ही योजना आयोग से स्थानापन्न कर दिया था। नीति आयोग के अनुसार सबीना अलकिरे एवं जेम्स फोस्टर द्वारा प्रस्तावित मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआई) एक मान्यता प्राप्त विश्व-स्तरीय प्रणाली है, जिसमें लोगों की आर्थिक हालात के बजाय कई अन्य आयामों से गरीबी का आकलन किया जाता है

नीति आयोग ने इस दायरे में पोषण, शिशु एवं बाल मृत्यु दर, मातृत्व स्वास्थ्य, स्कूली पढ़ाई, स्कूल में हाजिरी की संख्या, खाना पकाने का इंधन, स्वच्छता, पेयजल, आवास, बिजली, संपत्ति एवं बैंक अकाउंट को आधार बनाया है। इन मानदंडों पर यदि कोई व्यक्ति 33% या उससे अधिक मामलों में अपात्र पाया जाता है तो उसे ही बहुआयामी गरीबी के दायरे में गरीब माना जा सकता है।

सरल भाषा में कहे तो पेट में खाना हो चाहे न हो, लेकिन अगर आपके घर में पीएम खाते से शौचालय रिकॉर्ड में है तो आप गरीब नहीं हो सकते। इसी प्रकार जन-धन अकाउंट में करोड़ों लोगों का जीरो बैलेंस वाला खाता खोला जा चुका है भले ही अकाउंट में लेन-देन के नाम पर पीएम किसान निधि ही आती हो। उज्ज्वला योजना के तहत भी देश में पिछले 9 वर्षों के दौरान करोड़ों परिवारों को मुफ्त गैस सिलिंडर का वितरण किया गया। इस प्रकार वे भी बहुआयामी गरीबी के दायरे में गरीबी की रेखा में जाने की एक पात्रता को खो देते हैं।

नीति आयोग के डेटा पर उठ रहे सवाल

दोस्तों यूएनडीपी और उसके अधिकारी क्या समझेंगे? लेकिन नीति आयोग के लिए तो यह छप्पर-फाड़ स्कीम है। नीति आयोग के पूर्व सदस्य एवं प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय तो इससे भी कई कदम आगे हैं। हाल ही में उन्होंने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में खाद्य वस्तुओं को दी जाने वाली प्राथमिकता को ही बेहद कम वरीयता दिए जाने को लेकर जोरदार वकालत की थी। यह वह समय था जब टमाटर 150-200 रूपये किलो पहुंच चुका था। देश की वित्त मंत्री से जब प्याज कि बढ़ती कीमतों को लेकर संसद में सवाल किया गया, तो उनका टका सा जवाब था “मैं तो प्याज ही नहीं खाती।”

योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ एन सी सक्सेना ने बताया , ‘बहुआयामी गरीबी (Multidimensional Poverty) का आइडिया तो अच्छा है पर सवाल उठता है कि हम डेटा कहां से ला रहे हैं.,’ उन्होंने कहा कि, डेटा जुटाने के तीन प्रकार के सोर्स हैं,, जिसमें जनगणना (Census), नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO)और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे शामिल है. पर ये तीनों ही आज की तारीख में बंद है., 2021 में जनगणना हुआ नहीं,, एनएसएसओ का डेटा 2011-12 के बाद जारी ही नहीं किया गया और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे को ही सस्पेंड कर दिया गया. ऐसे में तो डेटा तो है ही नहीं, एन सी सक्सेना ने कहा, ‘ सर्वे में खुद लिखा है कि डेटा हमारे पास नहीं है ऐसे में गरीबी के कम होने की दर,, जो पहले थी उसे ही हमने मान लिया है.

दोस्तों ऐसे में सवाल उठता है कि पुराने दर से जो गरीबी गिर रही थी उसमें कमी आई है या बढ़ गई है इसकी कोई सही जानकारी नहीं है ऐसे में नीति आयेग के बहुआयामी गरीबी का डेटा बोगस है.’ अगर गरीबी में इतने प्रभावी तौर पर कमी आई है तो हाल के दिनों में विश्व भूख सूचकांक पर भारत के प्रदर्शन में गिरावट क्यों आई है? लेकिन इससे भी बड़ा सवाल ,,कि हेडलाइंस मैनेजमेंट में जुटी सरकार के लिए असली मुद्दा गरीबी नहीं गरीबी का मैनेजमेंट कर 2024 चुनाव के लिए बड़ा नैरेटिव खड़ा करना है। नीति आयोग उससे बाहर थोड़े ही है। आप नीति आयोग की इस रिपोर्ट से कितने सहमत है अपनी राय कमेन्ट कर जरूर बताएँ

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