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Parliament Winter Session: संसद में मोदी सरकार का रवैया और बेबस विपक्ष

Parliament Winter Session: दोस्तों हम सब जानते है देश में अमृतकाल चल रहा है और इस अमृतकाल में राजनीति इस वक्त एक ऐसे दौर में है जिसमें तर्क और तथ्य बहुत ज़्यादा महत्व नहीं रखते। संसद की कार्यवाही पर तो कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती स्पीकर के निर्णय को भी सही या गलत ठहराया नहीं जा सकता लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही किसी को किसी मुद्दे पर सुनना नहीं चाहते। सच और झूठ का फ़ैसला करना बड़ा मुश्किल है।

दोस्तों सत्ता पक्ष अगर विपक्षी सांसदों को सुन लेगा तो कोई पहाड़ टूटने वाला नहीं है। आख़िर विपक्ष संसद की सुरक्षा मामले में गृह मंत्री का बयान ही तो चाह रहा है। जहां तक विपक्ष का सवाल है वह भी केवल हंगामा करके आख़िर क्या दिखाना चाहता है? अपनी बात शांति से भी तो रख सकते है शांति से बात रखने में आखिर विपक्ष को दिक़्क़त क्या है?

सांसदों के सस्पेंशन का दौर !

दोस्तों ऐसा कभी नहीं हुआ। एक दिन में 78 सांसद निलंबित कर दिए गए। लोकसभा के 33 और 45 सदस्य राज्यसभा के । इनमें से लोकसभा के 30 और राज्यसभा के 34 सांसद तो ऐसे हैं जिन्हें पूरे सत्र के लिए निलंबित किया गया है। यही नहीं इसी सत्र में इसके पहले लोकसभा के 13 तथा राज्यसभा के एक सदस्य को निलंबित किया जा चुका है। कुल मिलाकर इस सत्र में 141 सांसदों को लोकसभा और राज्यसभा से सस्पेंड कर दिया गया है

विपक्ष का कहना है कि सत्ता पक्ष लोकतंत्र का दमन करने पर तुला हुआ है। जबकि लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा के सभापति का कहना है जिस मुद्दे पर हंगामा किया जा रहा है, वह जाँच का विषय है, हंगामे का नहीं। संसद की सुरक्षा तोड़कर छह लोगों ने जो स्मोक बम फोड़े थे हंगामा इसी बात पर किया जा रहा है। दोस्तों जब स्पीकर कह रहे हैं कि सुरक्षा मामले की उच्च स्तरीय जाँच की जा रही है और लोकसभा सचिवालय की मॉनिटरिंग में ही सब कुछ हो रहा है तो जाँच हो जाने दीजिए।, जाँच का परिणाम आ जाए और फिर आपको लगे कि इसमें सच छिपाया जा रहा है तो उसके बाद हंगामा कर लीजिए या जाँच के खिलाफ आंदोलन कर लीजिए। कम से कम संसद की कार्यवाही तो चलने दीजिए। शांति से। ऐसा तो संभव है पर होगा नहीं

क्या संसद का भी घट रहा है महत्व?

दोस्तों समझ नहीं आता यह अनुशासन-पर्व है या तानाशाही अगर भाजपा और सरकारी पक्ष और दोनों सदनों के चेयर का पक्ष देखें तो यह अनुशासन-पर्व है. विपक्ष ने जिस तरह से उपराष्ट्रपति का मजाक संसद के प्रांगण में बनाया और राहुल गांधी उसको रिकॉर्ड कर रहे थे और अगर विपक्ष के नजरिए से देखें तो यह निश्चित तौर पर तानाशाही है. हालांकि, इन दोनों के बीच में भी कई चीजें हैं. ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है. इसके पहले भी बहुत ऐसी चीजें होती रही हैं. तब आज का सत्तापक्ष विपक्ष में होता था और आज का विपक्ष तब सत्ताधारी था. ऐसी बातें तब भी होती थीं. लेकिन हां, यह जरूर देखना होगा क्या वजह है कि केवल हंगामा ही हो रहा है क्या इन हंगामों के पीछे कोई रणनीति है और आजकल का एक शब्द है-टूलकिट, तो यह भी देखना होगा कि क्या यह टूलकिट की देन है?,

हालांकि, पहले भी विपक्ष ऐसा करता ही था उसके पीछे भी सोची-समझी रणनीति होती थी. हरेक राजनीतिक दल अपने हिसाब से फायदा उठाने की कोशिश करता है. इन कोशिशों में कभी देश बहाना बनता है, कभी आम जनता को बहाना बनाते हैं. हर बार यह होता है कि सत्तापक्ष देश के नाम पर हंगामे का विरोध करता है कहता है कि जरूरी विधायी कार्य इससे नहीं हो पाते और देश का नुकसान हो रहा है जबकि विपक्ष कहता है अगर सरकार को खुला छोड़ दिया जाए उसकी कमी उजागर न की जाए तो देश का नुकसान होगा.

जनता के सवाल संसद में कौन पूछेगा?

पक्ष-विपक्ष हमेशा जनता को बहाना बनाकर खुद को सही ठहराते हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यह पहली बार हुआ है. जब आंध्र प्रदेश के पुनर्गठन का विधेयक पेश हो रहा था और उसको लेकर हंगामा हुआ था तो तत्कालीन अध्यक्ष मीरा कुमार ने 25 सांसदों को निलंबित किया था. तभी यह सवाल भी उठा था आखिर यह निलंबन और हंगामा कब तक चलता रहेगा क्योंकि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर लाखों रुपए खर्च होते हैं और यह करदाताओं की गाढ़ी मेहनत का पैसा खर्च होता है. तभी यह तय हुआ था कि सांसद कागज नहीं फेंकेंगे तख्तियाँ लेकर नहीं आएंगे और वेल में नहीं आएंगे- इस तरह की एक पूरी सूची बनी थी. फिर, यह तय हुआ कि जो भी पीठ (यानी चेयर) होगी,, वह अगर नाम ले लेगी तो वे सांसद निलंबित मान लिए जाएंगे

और अब अभी का मामला देखिए. जब गृहमंत्री ने कह दिया है कि 20 दिनों के लिए जो कमिटी लोकसभा स्पीकर ने बनायी है ताकि संसद में घुसपैठ की पूरी जांच हो सके और उसकी रिपोर्ट आने के बाद वे बात करेंगे तो विपक्ष को भी कम से कम इतने दिनों का धैर्य रखना चाहिए था. रिपोर्ट आने के बाद अगर उनको खामी लगती किसी को बचाने की बात लगती तो वे विरोध करते तब हंगामा करते. विपक्ष का अधिकार हंगामा करना है लेकिन उसको इस मामले में संयत रहना चाहिए था. जहां तक विपक्षी सांसदों के निलंबन की बात है तो एक संकेत तो यह जा रहा है कि सता पक्ष विपक्ष की बात नहीं सुनना चाहता हालांकि, सरकार के पास उसके तर्क भी हैं. जिस तरह टीएमसी सांसद ने राज्यसभा के सभापति की मिमिक्री की और राहुल गांधी उसका वीडियो बना रहे थे वह तो सरकारी दावे को ही पुष्ट करता है कि विपक्षी सांसदों का ‘कंडक्ट’ ठीक नहीं है

साथ ही, 1989 में जब वीपी सिंह की अगुआई में विपक्षी सांसदों ने बोफोर्स को लेकर हंगामा किया था तो 63 सांसदों को निलंबित किया गया था. तो सरकारें जिसकी भी हों वे उसी ढंग से काम करती हैं. बोफोर्स के मामले में तो आजतक कुछ साबित भी नहीं हो सका कि दलाली ली गयी थी. बस एक परसेप्शन बना था. हां, तब निलंबन को विपक्ष ने एक मौके के तौर पर इसको लिया था और सभी ने सामूहिक तौर पर इस्तीफा दिया था. अब सवाल ये है क्या आज का विपक्ष 1989 को दुहरा पाएगा? इसीलिए इस मामले में विपक्ष भी पाक-साफ नहीं दिखता .

निलंबन की परंपरा से नागरिकों का नुक़सान

दोस्तों सवाल तो ये भी उठता है क्या मोदी सरकार विपक्ष के सवालों का सामना संसद में नहीं करना चाहती है. दरअसल संसद में विपक्ष जो भी सवाल उठाता है वो एक तरह से जनता के ही सवाल होते हैं. विपक्ष के सवालों से किनारा करने का एक मतलब यह भी है कि सरकार उसी जनता के सवालों से कन्नी काट रही है जिस जनता को संसदीय व्यवस्था में सर्वोपरि स्थान संवैधानिक तौर से हासिल है

दोस्तों चाहे सरकार हो या विपक्ष दोनों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि संविधान के तहत संसदीय व्यवस्था में सुप्रीम अथाॉरिटी जनता है, देश के नागरिक हैं. अगर विपक्ष सवाल नहीं पूछेगा,, सरकार पर जवाब के लिए दबाव नहीं बनायेगा तो फिर जनता के सवाल संसद में किस रूप में उठाए जायेंगे जनता के सवालों के जवाब कहाँ-किससे मिलेंगे..अपने आप में यही बेहद गंभीर सवाल है. आपकी इस पर क्या राय है हमे कमेन्ट कर जरूर बताएँ

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