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Supreme Court on Governor: देश की सुप्रीम अदालत के क्यों हैं निशाने पर? जानिए पूरी वजह

Supreme Court on Governor: दोस्तों आजादी के 75 साल में ऐसा कभी नहीं हुआ जो अब अमृतकाल में हो रहा है आजादी के बाद कई बार राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठे हैं लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि सांस्थायिक रूप से राज्यपाल राज्य सरकारों के कामकाज में दखल दें, विधेयक रोकें सरकारों पर गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी करें और समानांतर सरकार चलाने की कोशिश करें। राज्यपालों के ऐसे आचरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कई बार बेहद तीखी टिप्पणियां की हैं

तमिलनाडु, पंजाब और अब केरल राज्य सरकारों और राज्यपाल के बीच सबकुठ ठीक नहीं है। वहां की सरकारों का आरोप है कि संबंधित राज्यपाल विधानसभा से पास बिलों को अपनी मंजूरी नहीं दे रहे हैं। नतीजा बिल लंबे समय तक राज्यपाल के पास ही रह जाता है और उसे राष्ट्रपति के पास भी नहीं भेजा जाता है। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पर पिनरई विजयन सरकार का आरोप है कि उन्होंने लगभग 2 सालों तक 8 विधेयकों को रोक कर रखा है।

तीन राज्यों के राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच तकरार

कमोबेश यही हाल पंजाब और तमिलनाडु का भी है जहां बिल को रोककर रखने या दबाने का आरोप है। सरकार और राज्यपाल के बीच तकरार का यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है और अब बिलों को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत अब इसपर दिशानिर्देश जारी कर सकती है। राज्यपालों का यह कुंडलीमार व्यवहार अब चर्चा का विषय है।

केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पर आरोप है कि उन्होंने 2 साल तक 8 बिल रोककर रखे थे। नतीजा यह हुआ कि केरल की सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। सरकार की ओर से पूर्व अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल पेश हुए थे। ,सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी नराजगी जाहिर की है। CJI ने विधानसभा की ओर से 2021 में पारित विधेयकों की ओर इशारा करते हुए पूछा, ‘राज्यपाल दो साल से क्या कर रहे थे?’ सीजेआई ने कहा कि राज्यपाल जवाबदेह हैं और अदालत का संविधान के प्रति कर्त्तव्य है.. लोग हमसे इसके बारे में पूछते हैं।

विधेयक को रोकने का मामला पंजाब में भी है। मान सरकार और राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित के बीच तकरार भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है। असल में हुआ यह कि पंजाब सरकार ने दो दिवसीय विधानसभा सत्र बुलाया था। सत्र में 3 वित्त विधेयक पेश होने थे। लेकिन बनवारी लाल पुरोहित ने इस सत्र को ही गैरकानूनी ठहरा दिया। बिल को भी पेश करने की अनुमति नहीं दी गई। 3 घंटे बाद सत्र को निलंबित कर दिया गया। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आरएन रवि के बीच तकरार की वजह भी बिल रोके जाना ही है। यह लड़ाई भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है। आरोप है कि आरएन रवि बिलों पर अधिक देरी कर रहे हैं। राज्य सरकार का कहना है कि राज्यपाल पूरे प्रशासन को ठप्प कर रहे हैं।

बिलों को पास न करने और रोकने का राज्यपालों पर आरोप

दोस्तों यह दुर्भाग्य है कि राज्यपालों ने राजभवनों को समानांतर सरकार चलाने का केंद्र बना दिया है। ऐसा सिर्फ उन्हीं राज्यों में हो रहा है जहां विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि राज्यपालों को अचानक संविधान से मिले अपने अधिकारों की याद आ गई है और वे अपने को वास्तविक शासन प्रमुख समझने लगे हैं। जहां भाजपा की सरकार है वहां ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की सारी सरकारें बहुत बढ़िया और संविधान सम्मत तरीके से काम कर रही हैं जबकि विपक्षी पार्टियों की सरकारें संविधान के प्रति सम्मान नहीं दिखा रही हैं

ऐसा लग रहा है कि पानी सर के ऊपर से निकलने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले के स्थायी समाधान का फैसला सुनाया है। सर्वोच्च अदालत ने दो टूक अंदाज में कहा है कि राज्यपाल कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को बदलने का प्रयास नहीं कर सकते हैं। यह बहुत बड़ा फैसला है। इससे पहले सर्वोच्च अदालत ने इस मामले को इतनी गंभीरता से नहीं लिया था।

लेकिन एक के बाद एक तीन राज्यों- केरल, तमिलनाडु और पंजाब के एक जैसे मामले कोर्ट में आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार से सुनवाई की और फैसला सुनाया। सर्वोच्च अदालत ने सिर्फ यह आदेश नहीं दिया कि राज्यपाल लंबित विधेयकों को जल्दी से जल्दी क्लीयर करें, बल्कि यह कहा है कि विधानसभा से पास विधेयकों को रोकने से कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया प्रभावित होती है।

सुप्रीम कोर्ट जल्द इसे लेकर बना सकता है दिशानिर्देश

अदालत ने संविधान के अनुच्छेद दो सौ का हवाला देते हुए कहा कि उसमें निश्चित रूप से यह नहीं लिखा गया है कि राज्यपाल कितने समय में किसी विधेयक को मंजूरी दें लेकिन यह जरूर लिखा है कि ‘जल्दी से जल्दी मंजूरी दें’। इसका मतलब है कि संविधान बनाने वालों की भावना यह रही है कि विधानसभा से पास होने के बाद जब विधेयक राज्यपाल के पास जाए तो वे उसे तुरंत मंजूरी दे।

अगर उनको लगता है कि विधेयक में कुछ सुधार किया जाना चाहिए तो उसे वे तुरंत विधानसभा को लौटा दें। दूसरी बार विधेयक भेजे जाने के बाद राज्यपाल के लिए उसे मंजूरी देना अनिवार्य होता है। लेकिन वह मंजूरी भी जल्दी से जल्दी हो जानी चाहिए। अदालत ने साफ किया है कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनंतकाल तक नहीं लटका सकते हैं। उन्हें विधानसभाओं के बनाए कानून को वीटो करने का अधिकार नहीं है।

दोस्तों अब सवाल ये उठता है क्या राज्यपालों को इस टिप्पणी के बाद कुछ शरम आएगी और क्या वे उसी अंदाज में काम करेंगे ? जैसे भाजपा के शासन वाले राज्यों में राज्यपाल कर रहे हैं? इसकी उम्मीद कम है और इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि भाजपा और उसकी विरोधी पार्टियों के बीच विभाजन इतना ज्यादा हो गया है कि भाजपा जहां भी विपक्ष में वहां उसे सरकार के हर काम का विरोध करना है। और चूंकि संगठन के तौर पर भाजपा भले दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है लेकिन हकीकत यह है कि जहां भी वह विपक्ष में है वहां वह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ नहीं लड़ पा रही है।

राज्यपालों की भूमिका पर विचार जरूरी

बतौर विपक्ष भाजपा कोई भी आंदोलन खड़ा नहीं कर पा रही है और न राजनीतिक लड़ाई लड़ पा रही है। तभी राजभवनों को लड़ाई का हथियार बनाया गया है। ऐसा लगता है कि जहां भी भाजपा विपक्ष में है वहां विपक्ष की लड़ाई राजभवन लड़ रहे हैं। पश्चिम बंगाल से लेकर केरल और तमिलनाडु से लेकर पंजाब और दिल्ली तक हर जगह राज्यपाल ही मुख्य विपक्ष दल के तौर पर लड़ते दिखते हैं। हर बात के लिए वे सरकार को कठघरे में खड़ा करते हैं। उनकी लड़ाई अब सिर्फ विधेयक रोकने या विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति रोकने तक सीमित नहीं है बल्कि कानून व्यवस्था से लेकर करप्शन तक के मसले पर राज्यपाल बयानबाजी करते हैं।

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी के बाद पंजाब के राज्यपाल ने दो विधेयकों को मंजूरी दी तो तमिलनाडु में राज्यपाल ने रोक कर रखे गए 10 विधेयक वापस लौटा दिए। हालांकि उसके तुरंत बाद सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुला कर उन विधेयकों को फिर से पास किया और राज्यपाल के पास भेज दिया। इसी तरह केरल में राज्यपाल ने एक विधेयक को मंजूरी दी और सात विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए रोक लिया।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केरल के राज्यपाल को लेकर तीखी टिप्पणी की और पूछा कि वे दो साल तक विधेयक रोक कर क्या करते रहे? सर्वोच्च अदालत ने यहां तक कहा कि वह केरल सरकार के इस अनुरोध पर विचार कर रही है कि राज्यपालों के लिए एक दिशा-निर्देश तैयार किया जाए कि वे किन स्थितियों में किसी विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए रोक सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी निश्चित रूप से सरकार को अच्छी नहीं लगी होगी। इससे टकराव बढ़ सकता है। उम्मीद करनी चाहिए कि अदालत की सख्ती के बाद इसमें कुछ सुधार होगा। आपकी इस मुद्दे पर क्या राय है कमेन्ट कर जरूर बताएँ

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