चुनावLoksabha Election 2024

Corruption: ये कसमें, वादे, गारंटियां, सब बातें हैं, बातों का क्या!

Corruption: लोकसभा चुनाव के लिए लगातार नेता चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं। रैलियों के दौरान कोई भी नेता चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का एक दूसरे पर कटाक्ष करने से बाज़ नहीं आ रहा। आजकल भ्रष्टाचार करने से कोई नहीं डरता और भ्रष्टाचार मिटाने की बात करनेवाले से भी कोई नहीं डरता! कसमें, ये वादे , ये गारंटियां महज सब बातें हैं बातों का क्या?

इस चुनाव में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। भ्रष्टाचार पर कार्यवाही से कुछ लोग बौखला गये हैं’, ‘मोदी जी कहते है भ्रष्टाचार हटाओ विपक्ष कहता है भ्रष्टाचारी बचाओ’ लेकिन असलियत में मोदी सरकार के लिए भ्रष्टाचार कोई सैद्धांतिक लड़ाई नहीं है बल्कि एक विपक्ष से जुड़ा हुआ मुद्दा है। यह एक राजनैतिक टूल बनकर रह गया है दोस्तों भ्रष्टाचार किसी दल तक सीमित नहीं किया जा सकता लेकिन मोदी सरकार लगातार यह प्रैक्टिस कर रही है जिसमें विपक्ष के नेताओं को ही जनता के सामने भ्रष्टाचारी बनाकर पेश किया जा रहा है। सरकार ठप पड़ गई है और प्रधानमंत्री लगातार ‘रैली मोड’ में आ गये हैं

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार का दावा है कि उन्होंने भ्रष्टाचार को कम करने के लिए कई उपाय अपनाए हैं, मसलन योजनाओं का डिजिटलाइजेशन, कानून में परिवर्तन, आदि।
लेकिन एक चिंताजनक तथ्य यह भी है कि इसी सरकार द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में किए संशोधन के बाद से भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारियों पर कार्रवाई मुश्किल हो गई है।

उदाहरण के लिए महाराष्ट्र का एंटी करप्शन ब्यूरो (ACB) कथित वित्तीय अनियमितताओं से जुड़े दो-तिहाई मामलों में आरोपी अधिकारियों के खिलाफ जांच शुरू नहीं कर पा रहा क्योंकि राज्य सरकार या संबंधित विभाग की तरफ से मंजूरी नहीं मिल रही है। जांच के कई मामले महीनों तो कुछ वर्षों से लंबित हैं।

547 मामलों में से सिर्फ 51 को मिली मंजूरी

द इंडियन एक्सप्रेस के मोहम्मद थावेर ने राज्य एसीबी से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया है, जिससे पता चला है कि कानून में बदलाव के बाद से मार्च 2024 तक एसीबी ने वित्तीय अनियमितताओं से जुड़े 547 मामलों की जांच के लिए अर्जी लगाई, जिसमें से केवल 51 को मंजूरी मिली। 126 मामलों की अर्जी खारिज कर दी गई थी। 31 मार्च तक मंजूरी मिले मामलों समेत 354 केस की जांच नहीं की जा सकी थी।
राज्य के पास लंबित 354 स्वीकृतियों में से 210 वरिष्ठ अधिकारियों से संबंधित हैं और 144 अनुरोध उस सरकारी विभाग के समक्ष लंबित हैं जहां कर्मचारी काम करता है। इन 354 मामलों में से दो को छोड़कर, एसीबी को चार महीने से अधिक समय से राज्य या संबंधित विभाग से कोई जवाब नहीं मिला है।

जिस दौरान ये सब चल रहा था राज्य में अलग-अलग गठबंधन की सरकार रही, जैसे- भाजपा+शिवसेना, महा विकास अघाड़ी (शिवसेना+कांग्रेस+एनसीपी) और भाजपा+शिवसेना (शिंदे)+एनसीपी (अजित पवार)।

ACB के हाथ क्यों बंधे हैं?
जुलाई 2018 से पहले एसीबी सरकार से मंजूरी का इंतजार नहीं करती थी। प्रारंभिक जांच शुरू करने के साथ ही, FIR दर्ज की जा सकती थी। लेकिन जुलाई 2018 में केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में धारा 17 (ए) पेश किया। इस संशोधन के बाद पुलिस सीधे केस दर्ज नहीं कर सकती थी, संबंधित विभाग या राज्य सरकार से मंजूरी लेने को आवश्यक बना दिया गया।

संशोधन के मुताबिक, अर्जी मिलने पर सरकार को तीन महीने के भीतर अपना निर्णय बताना होता है। सरकार लिखित में कारण बताकर अतिरिक्त एक महीना ले सकती है।

महाराष्ट्र एसीबी के एक अधिकारी ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “हालांकि मंजूरी देने के लिए अधिकतम चार महीने का समय होता है, लेकिन कानून में यह उल्लेख नहीं है कि समय सीमा का पालन नहीं करने पर क्या कार्रवाई की जा सकती है। इसलिए, देरी के बावजूद हम इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते।”

भाजपा और भ्रष्टाचार

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का दावा है कि उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार कम हुआ है। लेकिन विपक्ष का आरोप है कि मोदी सरकार में न सिर्फ भ्रष्टाचार बढ़ा है बल्कि सत्ताधारी भाजपा ने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोपियों को अपनी पार्टी में जगह भी दी है।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने तो भाजपा पर तंज कसते हुए उसे ‘फुली ऑटोमेटिक वॉशिंग मशीन’ बताया है। दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष ने इंडियन एक्‍सप्रेस की जिस इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट को शेयर करते भाजपा पर तंज कसा है, उसमें बताया गया है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भाजपा में शामिल होने वाले या सहगोयी बनने वाले भ्रष्टाचार के आरोपी 25 विपक्षी नेताओं में से 23 को राहत मिल गई है।

विपक्ष से आकर भाजपा में राहत पाने वालों में 10 पूर्व कांग्रेसी हैं। इसके अलावा पूर्व शिवसेना, पूर्व एनसीपी, पूर्व टीमसी, पूर्व टीडीपी, पूर्व सपा और वायएसआरपी नेता भी भाजपा से जुड़कर राहत पा चुके हैं।

लोकसभा चुनाव 2024 के लिए भी भाजपा दूसरे दल के दागी नेताओं को उम्मीदवार बना रही है, जैसे- नवीन जिंदल के खिलाफ सीबीआई और ईडी ने चार्जशीट दायर की है, लेकिन अभी कुछ दिन पहले जैसे ही वह भाजपा में शामिल हुए उन्हें पार्टी ने लोकसभा का टिकट दे दिया।

जनवरी 2024 में Corruption Perceptions Index-2023 का डेटा जारी हुआ था। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी इस रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत दुनिया का 93वां सबसे भ्रष्ट देश है। सूची में कुल 180 देशों शामिल हैं। इंडेक्स में देशों को उनके सरकारी क्षेत्र की कथित भ्रष्टाचार के स्तर के अनुसार सूचीबद्ध किया जाता है। लिस्ट में टॉप पर डेनमार्क है, उसके बाद फ़िनलैंड, न्यूजीलैंड और नॉर्वे हैं।


यह सूचकांक 0 से 100 के पैमाने का उपयोग करता है, जहां 0 ‘अत्यधिक भ्रष्ट’ और 100 ‘भ्रष्टाचार मुक्त’ को प्रदर्शित करता है। 2023 में भारत का कुल स्कोर 39 था जबकि 2022 में यह 40 था। 2022 में भारत की रैंक 85 थी, जो 2023 में 93 रही। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक, मोदी सरकार के 9 साल में (2014-2023) में भ्रष्टाचार दो पॉइंट कम हुआ है।

प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार पर जवाब दें!

बीते दिनों पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा भ्रष्टाचार पर दिये गये उनके भाषणों पर गौर कीजिए- ‘भ्रष्टाचार पर कार्यवाही से कुछ लोग बौखला गये हैं’, ‘मोदी कहता है भ्रष्टाचार हटाओ, विपक्ष कहता है भ्रष्टाचारी बचाओ’, ‘तीसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार पर प्रहार और तेज होगा’, ‘हम हैं जिसका मिशन है भ्रष्टाचार हटाओ और एक तरफ वे हैं उनका मिशन कहता है भ्रष्टाचारी बचाओ, लेकिन ये मोदी है। पीछे हटने वाला नहीं है…ये मोदी की गारंटी है।’ मोदी जी के भाषणों को सुनकर लगेगा कि वह वास्तव में भ्रष्टाचार पर प्रहार करने वाले हैं और अब किसी भी भ्रष्टाचारी को नहीं बख्शेंगे। लेकिन असलियत में मोदी सरकार के लिए भ्रष्टाचार कोई सैद्धांतिक लड़ाई नहीं है बल्कि एक विपक्ष से जुड़ा हुआ मुद्दा है। यह एक राजनैतिक टूल बनकर रह गया है जिसे चुनावी राजनीति में सिर्फ़ विपक्ष के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किए जाने का दृष्टिकोण है। चूँकि भ्रष्टाचार किसी दल तक सीमित नहीं किया जा सकता, लेकिन मोदी सरकार लगातार यह प्रैक्टिस कर रही है जिसमें विपक्ष के नेताओं को ही जनता के सामने भ्रष्टाचारी बनाकर पेश किया जा रहा है।

भारत में बढ़ते भ्रष्टाचार को आसानी से ट्रैक किया जा सकता है। स्वयं पीएम मोदी भी ट्रैक कर सकते हैं। बस उन्हें अपने शुभचिंतकों की बातें ध्यान से सुननी चाहिए। ऐसे ही एक शुभचिंतक हैं भाजपा नेता और पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक। सत्यपाल जी ने पीएम मोदी के ‘भ्रष्टाचार पर प्रहार’ वाली ‘गारंटी’ पर बोलते हुए कहा कि- ‘बिल्कुल मोदी जी आपकी बात सही है, परंतु मैंने भ्रष्टाचार में शामिल जिन-जिन व्यक्तियों के बारे में बताया था, वे सभी आपकी पार्टी में ही हैं और उन पर आज तक कोई भी कार्रवाई नहीं हुई।ऐसा क्यों…?’ पीएम मोदी चाहें तो किसी आगामी रैली में इस सवाल का जवाब दे सकते हैं। और चाहें तो अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार पर हमेशा की तरह चुप्पी भी साध सकते हैं। साथ ही सत्यपाल मलिक सही कह रहे हैं या ग़लत इसकी भी पड़ताल की जा सकती है और जनता को पड़ताल से अवगत भी कराया जा सकता है।

CAG की रिपोर्ट से खुलासा

केंद्र सरकार की आँखों में फ़िल्टर लगा हुआ है अन्यथा उसे भ्रष्टाचार की सच्चाई अवश्य दिखती। प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेवाई) जोकि आयुष्मान भारत योजना के दो हिस्सों में से एक है। यह योजना पीएम मोदी द्वारा ढोल-नगाड़ों के साथ लायी गई थी, बड़े-बड़े वादे किए गये थे। लेकिन मोदी जी अपने वादे को पूरा नहीं कर सके, और यह योजना भ्रष्टचार का शिकार हो गई। इस योजना का मूल्यांकन नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा किया गया। CAG की रिपोर्ट से पता चला है कि इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हुआ है। सीएजी ने पाया कि इस योजना के तहत दिये जाने वाले 5 लाख रुपये प्रति परिवार के बीमा दावों के निपटान में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2.25 लाख मामलों में, की गई ‘सर्जरी’ की तारीख डिस्चार्ज की तारीख के बाद की दिखाई गई थी। एक आँकलन के मुताबिक़ इसमें कम से कम 300 करोड़ का भ्रष्टाचार हुआ है। कैग ने पाया कि ट्रांजेक्शन मैनेजमेंट सिस्टम (टीएमएस) के अनुसार, इलाज के दौरान 88,760 मरीजों की मौत हो गई। फिर भी, इन मृत ‘रोगियों’ को दिए गए ‘ताजा उपचार’ के नाम पर इनके 2,14,923 फ़र्जी दावों का भुगतान किया गया। जिस योजना का गुणगान पीएम मोदी पूरे देश में करते रहे उसकी चौकीदारी भी अच्छे से नहीं कर सके। संबंधित मंत्री से इस भ्रष्टाचार के लिए जवाब तलाब नहीं कर सके और न ही इतनी हिम्मत दिखा सके कि जनता के सामने आकर अपनी सरकार के भ्रष्टाचार से ही नाराज़गी दिखा देते। इस भ्रष्टाचार के लिए उनसे कोई उनका इस्तीफ़ा नहीं माँग रहा था।

इलेक्टोरल बॉण्ड के मामले ने तो नरेंद्र मोदी सरकार की संपूर्ण विश्वसनीयता पर ही प्रश्न लगा दिया। यह योजना और इसका खुलासा इस बात की पुष्टि करता है कि इलेक्टोरल बॉण्ड योजना का ग़लत इस्तेमाल किया गया। यह भी कहा जा सकता है कि 2017-18 में आयी यह योजना ग़लत उद्देश्यों के तहत लायी गई थी। खेल समझिए और क्रोनोलॉजी पर ध्यान दीजिए।

जानबूझकर वित्त अधिनियम-2017 लाकर कॉर्पोरेट जगत को खुली छूट दे दी गई कि वो जितना चाहे उतना चंदा राजनैतिक दलों को दे सकते हैं। जबकि कंपनी अधिनियम 2013 में कॉर्पोरेट के लिए पार्टियों को चंदा देने की सीमा 7.5%(कंपनी के पिछले तीन सालों के लाभ का औसत) निर्धारित थी।एक कंपनी जिसे अपनी ‘पहचान’ खुलने का डर नहीं था, एक कंपनी जिसे असीमित धन चंदे के रूप में पार्टी को देने की छूट थी, अब कंपनियाँ यदि सत्तारूढ़ दल के साथ ‘मिलकर’ काम करें तो दोनों का फ़ायदा होना था।भ्रष्टाचार के इसी नेक्सस से परेशान होकर सुप्रीम कोर्ट ने इस इलेक्टोरल बॉण्ड योजना को ही असंवैधानिक करार दे दिया। इसका साफ़ मतलब था कि सुप्रीम कोर्ट नरेंद्र मोदी सरकार के इस योजना को लेकर दिये जा रहे, ‘पारदर्शिता’ के तर्क से सहमत नहीं था। आदेश के बाद जब आँकड़े सामने आने लगे तो न्यायालय का शक सही साबित हुआ। इलेक्टोरल बॉण्ड की आड़ में भीषण भ्रष्टाचार चल रहा था और मोदी सरकार ख़ामोश थी।

The Hindu की रिपोर्ट के मुताबिक

द हिंदू, द्वारा इलेक्टोरल बॉण्ड आँकड़ों के किए गये विश्लेषण से पता चला कि कम से कम 33 ऐसी कंपनियाँ हैं जिनका 2017-2023 के बीच शुद्ध लाभ नकारात्मक है इसके बावजूद उनके द्वारा राजनैतिक दलों को 581 करोड़ का चंदा दिया गया।सबसे अहम बात यह है कि इस चंदे का लगभग 75% अकेले बीजेपी के पास गया है। अब जो कंपनियाँ शुद्ध नकारात्मक लाभ में हैं वो करोड़ों का चंदा कैसे दे रही हैं? कोई भी नौसिखिया बता सकता है कि यह स्थिति बिना ‘मनी लाउंड्रिंग’ के नहीं आ सकती। अर्थात् इसमें प्रवर्तन निदेशालय(ED) को जाँच करनी चाहिए थी। लेकिन आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसमें जाँच क्यों नहीं हो रही है और अरविंद केजरीवाल की जाँच क्यों हो रही है, उन्हें क्यों जेल में भेजा गया है। सरकार ED का इस्तेमाल करके 70 साल पुराने मज़बूत लोकतंत्र का क़ानूनी तरीक़ों से गला घोंटने का प्रयास कर रही है। ED का जो काम होना चाहिए था, उसे जहां सक्रिय होना चाहिए था, उसे वह करने नहीं दिया जा रहा है।

आज से 56 साल पहले 1967 में बनी ED भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के अन्तर्गत काम करने वाली एजेंसी है। इसकी स्थापना का उद्देश्य था कि भारत में पनप रहे आर्थिक अपराध को रोका जा सके। या दूसरे शब्दों में कहें, तो इसका काम था किसी भी क़िस्म के आर्थिक भ्रष्टाचार पर रोक को सुनिश्चित करना।PMLA-2002 लाकर इस संस्था की ज़िम्मेदारी और कार्य दोनों बढ़ा दिये गये।परंतु ED के काम को अनाधिकारिक रूप से कभी इस स्तर तक नहीं बढ़ाया जाना चाहिए था कि वो लोकतंत्र की हत्या का औज़ार बनकर उभरे। लेकिन मोदी सरकार के अंतर्गत उस एजेंसी के कामों और इसमें सरकारी दखल ने इसे एक असक्षम और ग़ैर-भरोसे वाली एजेंसी के रूप में बदल दिया।

Indian Express की रिपोर्ट के मुताबिक

हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस द्वारा की गई एक जाँच की मानें तो 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद से ED जाँच का सामना कर रहे 25 राजनेता अन्य पार्टियों को छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गये हैं। ताज्जुब की बात तो यह है कि इनमें से 23 को ED द्वारा आरोप मुक्त कर दिया गया है। ऐसे में क्या यह कहना ग़लत होगा कि भारतीय जनता पार्टी ने, नेताओं को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के बदले उन्हें अपनी पार्टी में शामिल किया है? क्या यह कहना ग़लत होगा कि बीजेपी ने यह तय कर लिया है कि जो विपक्ष में रहेगा उसे लगातार परेशान किया जाएगा जबकि जो बीजेपी में शामिल होंगे उन्हें सभी भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त कर दिया जाएगा? क्या यह कहना ग़लत होगा कि बीजेपी ED के माध्यम से देश की अन्य पार्टियों को तोड़ने में लगी है? क्या यह कहना ग़लत होगा कि बीजेपी क़ानूनी रास्ते से देश के विपक्ष को समाप्त करने की कोशिश कर रही है? इन सबके उत्तर सभी मतदाताओं को तलाशने हैं, लेकिन यदि मतदाताओं का उत्तर ‘हाँ’ है तो यह संपूर्ण भारत के लिए एक ख़तरा है।

कुछ भी हो, यह सारी घटनाएँ पीएम मोदी की भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ उनकी नीतियों/वादों/भाषणों/गारंटियों पर प्रश्नचिन्ह लगा रही हैं। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह लगता है कि पीएम मोदी को भारत की अपंग मीडिया और ढल चुकी संस्थाओं की अकर्मण्यता पर इतना अधिक भरोसा है कि वो चाहे जितने झूठ अपने भाषणों में बोलें, उनकी पोल खोलने वाला, उन्हें आईना दिखाने वाला कोई नहीं है। जो मीडिया का एक हिस्सा यूट्यूब के माध्यम से उन्हें आईना दिखा भी रहा है उसे सरकार प्रतिबंधित कर दे रही है(बोलता हिंदुस्तान)।


यही हाल पीएम मोदी के दावों/गारंटियों का भारत की सीमाओं को लेकर है। मोदी पहले डोकलाम विवाद(2017) के दौरान भारत की हज़ारों एकड़ ज़मीन चीन के हाथों दे बैठे, और अब चीन अरुणाचल पर भी नज़र गड़ाये हुए है। चीन भारत की सीमा में स्थित गाँवों के नाम बदल रहा है, अपनी अवसंरचना को बढ़ा रहा है और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक शब्द भी चीन के ख़िलाफ़ नहीं बोल रहे हैं। यह कैसी नीति है? कैसे प्रधानमंत्री हैं वो, उनके पास 140 करोड़ भारतीयों की ताक़त है, पूरा राजनीतिक समर्थन है इसके बावजूद चीन को क्लीन चिट देकर कह दिया कि ‘ना कोई भारत की सीमा में घुसा है, ना ही कोई पोस्ट कब्जे में है’? चीन ने पीएम मोदी के इस कथन का खूब फ़ायदा उठाया और बार बार कई मंचों पर भारत के पीएम के इस कथन को उद्धृत किया कि भारत के पीएम ही नहीं मानते कि हमने भारतीय सीमा में घुसपैठ की है।

यह आयरन डोम की तरह है जिससे टकरा कर सारे आरोप बेकार हो जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि मोदी सरकार आरोप प्रूफ हो गई है कोई भी आरोप उस पर पेस्ट नहीं हो रहा है। सरकार के प्रचार का कमाल है कि विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई को भी जनता सत्ता का दुरुपयोग नहीं मान रही है।

जिस गर्व के साथ मोदी जी ने नारा दिया था ‘ना खाऊँगा और ना खाने दूँगा’ वह आज धूल में मिल चुका है। पीएम मोदी के नेतृत्व में बीजेपी पर जो ‘परफेक्ट डेन्ट’ लगा है वह किसी भी गैराज में ठीक नहीं किया जा सकता है बस मोदी जी आप अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार पर जवाब दें। पीएम मोदी वास्तव में कब भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ेंगे? आख़िर कब वो भारत के सीमा पार स्थित दुश्मनों को अपनी लाल आँखें दिखायेंगे? आपकी इस पर क्या राय है हमे कमेन्ट कर जरूर बताएँ

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